भगवान विष्णु के 10 अवतार और उनकी संक्षिप्त कथा

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Bhagwan Vishnu Ke 10 Avatar

सृष्टि के पालनकर्ता भगवान विष्णु संसार की रक्षा के लिए प्रत्येक युग में अलग अलग रूपों में पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। मुख्य रूप से भगवान विष्णु के 10 अवतार बताये गए हैं जिन्हें दशावतार भी कहते हैं।

भगवान विष्णु के इन मुख्य 10 अवतारों के अलावे अंशावतार, आवेशावतार आदि को मिलाकर 14 अन्य अवतार भी बताये गए हैं। इस प्रकार भगवान विष्णु के कुल 24 अवतार बताये जाते हैं। पर हम यहाँ भगवान विष्णु के 10 अवतारों के नाम और कथा की ही चर्चा करेंगे।

विष्णु अवतार नाम लिस्ट

#अवतार का नाम
1मत्स्य
2कूर्म
3वराह
4नृसिंह
5वामन
6परशुराम
7राम
8कृष्ण
9बुद्ध
10कल्कि
Vishnu Avatar List In Hindi

मत्स्य अवतार / Matsya Avatar

सतयुग के आरम्भ में सत्यव्रत नाम से एक विख्यात राजर्षि हुए। राजा सत्यव्रत बड़े क्षमाशील, समस्त श्रेष्ठ गुणों से संपन्न और सुख-दुःख को समान समझने वाले एक वीर पुरुष थे।

वे पुत्र को राज्यभार सौंप कर स्वयं तपस्या करने वन में चले गए। एक दिन राजर्षि सत्यव्रत नदी में स्नान करके तर्पण कर रहे थे। इतने में ही जल के साथ एक छोटी सी मछली उनके अंजलि में आ गयी।

राजा ने जल के साथ ही उसे फिर से नदी में डाल दिया। तब उस मछली ने बड़ी करुणा के साथ राजा से कहा –

” राजन ! मेरी रक्षा कीजिये। आप जानते ही हैं कि जल में रहने वाले बड़े जीव अपने से छोटे जीवों को खा जाते हैं फिर आप मुझे इस जल में क्यों छोड़ रहे हैं ? “

राजा सत्यव्रत ने उस मछली की अत्यंत दीनतापूर्ण वाणी सुनकर उसे अपने कमंडल में रख लिया और आश्रम ले आये। एक ही रात में वह मछली इतनी बढ़ गयी कि कमंडल में उसके रहने के लिए स्थान ही नहीं बचा।

तब वह राजा से बोली – ” राजन ! अब तो कमंडल में मेरा निर्वाह नहीं हो सकता, अतः मेरे लिए कोई बड़ा सा स्थान ठीक कीजिये। “

तब राजर्षि सत्यव्रत ने उस मछली को कमंडल से निकाल कर एक पानी के मटके में रख दिया। पर दो घड़ी में ही वह वहाँ भी बढ़कर तीन हाथ की हो गयी।

फिर उसने राजा से कहा – ” राजन ! यह मटका भी अब मेरे लिए पर्याप्त नहीं है, अतः मुझे सुखपूर्वक रहने के लिए कोई दूसरा बड़ा सा स्थान दीजिये। “

राजा सत्यव्रत ने उस मछली को वहाँ से उठा कर एक बड़े सरोवर में डाल दिया पर कुछ ही समय में उस मछली ने उस सरोवर के जल को भी घेर लिया। तब हारकर राजा ने उसे समुद्र में डाल दिया।

समुद्र में छोड़े जाते समय उस लीला मत्स्य ने कहा – ” राजन ! समुद्र में बहुत से विशालकाय प्राणी रहते हैं, वे मुझे निगल जायेंगे, अतः आप मुझे समुद्र में मत डालिये। “

मत्स्य रूपधारी भगवान की बात सुनकर राजा सत्यव्रत की बुद्धि भ्रमित हो गयी। तब उन्होंने पुछा – ” मुझे मत्स्य रूप से मोहित करने वाले आप कौन हैं ?

आपने कुछ ही दिनों में अपने आकार से एक विशाल सरोवर को आच्छादित कर लिया। ऐसा पराक्रमी जीव मैंने आज तक न देखा है, ना ही सुना है।

निश्चय ही आप साक्षात् सर्वशक्तिमान सर्वव्यापी श्रीहरि हैं। हे पुरुषश्रेष्ठ, आपको नमस्कार है। कृपा करके यह बताएँ कि आपने यह मत्स्य रूप किस उद्देश्य से धारण किया है ? ”

राजा के इस प्रकार पूछने पर मत्स्य भगवान बोले – ” शत्रुसूदन ! आज से सातवें दिन तीनों लोक प्रलय समुद्र में निमग्न हो जायेंगे।

उस समय प्रलयकाल की जलराशि में त्रिलोकी के डूब जाने पर मेरी प्रेरणा से तुम्हारे पास एक विशाल नौका आएगी।

तब तुम समस्त औषधियों, छोटे बड़े सभी प्रकार के बीजों और प्राणियों के सूक्ष्म शरीरों को लेकर सप्तर्षियों के साथ उस बड़ी नाव पर चढ़ जाना और निश्चिंत होकर उस जल में विचरण करना।

उस समय प्रकाश नहीं रहेगा, केवल ऋषियों के दिव्य तेज का ही सहारा रहेगा। जब झंझावात के प्रचंड वेग से नाव डगमगाने लगेगी, उस समय मैं इसी रूप में तुम्हारे पास आऊँगा।

तब तुम वासुकि नाग के द्वारा उस नाव को मेरे सींग में बांध देना। इस प्रकार जब तक ब्रह्मा जी की रात रहेगी तब तक मैं उस नाव को प्रलय सागर में खींचता हुआ विचरण करूंगा।

उस समय तुम्हारे प्रश्न करने पर मैं उनका उत्तर दूंगा, जिनसे मेरी महिमा तुम्हारे ह्रदय में प्रस्फुटित हो जाएगी। “

यह कहकर मत्स्य भगवान अंतर्ध्यान हो गए।

राजर्षि सत्यव्रत भगवान के बताये हुए उस काल की प्रतीक्षा करने लगे। जब प्रलय का समय नजदीक आ गया तब सत्यव्रत अपने आश्रम के समीप आसन बिछाकर भगवान श्रीहरि के ध्यान में निमग्न हो गए।

इतने में ही राजा ने देखा कि समुद्र अपनी मर्यादा भंग करके चारों ओर से पृथ्वी को डुबाता हुआ बढ़ रहा है और उसी समय काले मेघ समस्त आकाश को आच्छादित करके भयंकर वर्षा करने लगे।

तब उन्होंने भगवान के आदेश का ध्यान किया और तभी कहीं से एक बड़ी सी नाव उनके सामने आकर रूक गयी। फिर राजा औषधि, बीज और प्राणियों के सूक्ष्म शरीरों को लेकर सप्तर्षियों के साथ उस नाव पर सवार हो गए।

तब सप्तर्षियों ने प्रसन्न होकर कहा – ” राजन ! केशव का ध्यान कीजिये। वे ही हमलोगों की इस संकट से रक्षा करेंगे। ”

इसके बाद राजा के ध्यान करते ही श्रीहरि मत्स्य रूप धारण करके उस प्रलय के जल में प्रकट हो गए। उनका शरीर स्वर्ण के समान देदीप्यमान तथा अत्यंत विशाल था। उनके एक सींग भी था।

राजा ने पूर्वकथनानुसार उस नाव को वासुकि नाग के द्वारा मत्स्य भगवान के सींग में बाँध दिया और स्वयं प्रसन्न होकर भगवान की स्तुति करने लगे।

राजा सत्यव्रत के स्तवन करने के बाद मत्स्य रूपधारी पुरुषोत्तम भगवान ने प्रलय जल में विहार करते हुए उन्हें तत्वज्ञान का उपदेश किया जो मत्स्य पुराण नाम से प्रसिद्ध है।

प्रलय के अंत में भगवान ने हयग्रीव नामक असुर को मारकर उससे वेद छीन लिए और ब्रह्मा जी को दे दिए।

भगवान की कृपा से राजा सत्यव्रत ज्ञान विज्ञान से संपन्न होकर इस कल्प में वैवस्वत मनु हुए।

कूर्म अवतार / Kurma Avatar

समुद्र मंथन के समय जब मंदराचल पर्वत को मथनी बनाया गया तो अपने विशाल आकार के कारण वो समुद्र में डूबने लगा।

यह देखकर परम शक्तिमान श्रीभगवान एक विशाल एवं विचित्र कच्छप का रूप धारणकर मंदराचल पर्वत के नीचे पहुँच गए।

कच्छपावतार भगवान की विशाल पीठ पर आश्रय पाकर मंदराचल पर्वत ऊपर उठ गया। इतना ही नहीं, वे मंदराचल पर्वत को ऊपर से दूसरे पर्वत की भाँति अपने हाथों से दबाकर स्थित हो गए।

इस प्रकार समुद्र मंथन का कार्य सुचारु रूप से संपन्न हुआ। इसे ही भगवान विष्णु का कूर्म अवतार कहते हैं।

वराह अवतार / Varaha Avatar

एक समय की बात है। ब्रह्मा जी के मानसपुत्र सनकादि ऋषिगण भगवद्दर्शन की लालसा लिए बैकुण्ठ धाम में जा पहुँचे। वहां द्वार पर उन्हें हाथ में गदा लिए दो समान आयु के देवश्रेष्ठ दिखाई दिए।

वे दोनों भगवान के पार्षद जय और विजय थे। जय-विजय सनकादि का मार्ग रोककर खड़े हो गए। यह देखकर सनकादि क्रुद्ध हो गए और उन दोनों द्वारपालों को श्राप देते हुए कहा –

” तुम भगवान बैकुण्ठ नाथ के पार्षद हो, किन्तु तुम्हारी बुद्धि अत्यंत मंद है। तुम अपनी भेदबुद्धि के दोष से इस बैकुण्ठ लोक से निकलकर उन पाप योनियों में जाओ जहाँ काम, क्रोध और लोभ रहते हैं। “

सनकादि के श्राप से व्याकुल होकर जय-विजय उनके चरणों में लोटकर क्षमा प्रार्थना करने लगे।

इधर जैसे ही श्री भगवान पद्मनाभ को विदित हुआ कि उनके पार्षदों ने सनकादि का अनादर किया है, वे तुरंत लक्ष्मी सहित वहाँ पहुँच गए।

भगवान को स्वयं वहाँ देखकर सनकादि की विचित्र दशा हो गयी। वे तुरंत भगवान को प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे।

तब भगवान सनकादि की प्रशंसा करते हुए बोले – ” ये जय-विजय मेरे पार्षद हैं। इन्होने आपका अपराध किया है। आपने इन्हें दंड देकर उचित ही किया है। ब्राह्मण मेरे परम आराध्य हैं।

मेरे अनुचरों के द्वारा आप लोगों का जो अनादर हुआ है, उसे मैं अपने द्वारा ही किया हुआ मानता हूँ। मैं आप लोगों से प्रसन्नता की भिक्षा मांगता हूँ। “

सनकादि ने प्रभु की अर्थपूर्ण और गंभीर वाणी सुनकर उनका गुणगान करते हुए कहा -” हे लक्ष्मीपति, आप सत्वगुण की खान और सभी जीवों के कल्याण के लिए सदा उत्सुक रहते हैं। हमने क्रोधवश इन्हें शाप दे दिया, इसके लिए हमें ही दण्डित करें, हमें सहर्ष स्वीकार है। “

दयामय प्रभु ने सनकादि से अत्यंत स्नेहपूर्वक कहा – ” आप सत्य समझिये, आपका यह शाप मेरी ही प्रेरणा से हुआ है। ये दैत्य योनि में जन्म तो लेंगे, पर क्रोधावेश से बढ़ी हुई एकाग्रता के कारण शीघ्र ही मेरे पास लौट आएंगे। “

सनकादि ऋषियों ने प्रभु की अमृतवाणी से प्रसन्न होकर उनकी परिक्रमा की और वहाँ से प्रस्थान कर गए।

सनकादि के जाने के बाद प्रभु ने जय-विजय से कहा – ” तुमलोग निर्भय होकर जाओ। तुम्हारा कल्याण होगा। मैं सर्वसमर्थ होकर भी ब्रह्मतेज की रक्षा चाहता हूँ , यही मुझे अभीष्ट है।

दैत्ययोनि में मेरे प्रति अत्यधिक क्रोध के कारण तुम्हारी जो एकाग्रता होगी , उससे तुम इस श्राप से मुक्त होकर कुछ ही समय में मेरे पास लौट आओगे। ”

लीलामय प्रभु की लीला का रहस्य देवताओं और ऋषियों को भी समझ में नहीं आता तो मनुष्यों की तो बात ही क्या।

प्रभु की इसी लीला के फलस्वरूप तपस्वी कश्यप मुनि जब सूर्यास्त के समय संध्या पूजन में लगे थे उसी समय उनकी पत्नी दक्षपुत्री दिति उनके समीप पहुँचकर संतान प्राप्त करने की कामना व्यक्त करने लगी।

महर्षि कश्यप ने उनकी इक्षापूर्ति का आश्वासन देते हुए असमय की ओर संकेत किया पर दिति के हठ के आगे उनकी एक न चली।

बाद में महर्षि कश्यप ने दिति देवी से कहा – ” तुमने चतुर्विध अपराध किया है। एक तो कामासक्त होने के कारण तुम्हारा चित्त मलिन था, दूसरे वह असमय था, तीसरे तुमने मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया है

और चौथे तुमने रूद्र आदि देवताओं का अनादर किया है। इस कारण तुम्हारे गर्भ से दो अत्यंत अधम और क्रूरकर्मा पुत्र उत्पन्न होंगे। उनके कुकर्मों एवं अत्याचारों से महात्मा पुरुष क्षुब्ध और धरती व्याकुल हो जाएगी।

वे इतने पराक्रमी और तेजस्वी होंगे की उनका वध करने के लिए स्वयं नारायण दो अलग अलग अवतार ग्रहण करेंगे। ”

दिति देवी कश्यप मुनि की बात सुनकर चिंतित हो गयी पर उन्हें इस बात का संतोष था कि उनके पुत्रों की मृत्यु स्वयं नारायण के हाथों होगी, जिससे उनका कल्याण हो जायेगा।

समय आने पर दिति ने दो जुड़वाँ पुत्र उत्पन्न किये। उन दैत्यों के धरती पर पैर रखते ही पृथ्वी, आकाश और स्वर्ग में अनेकों उपद्रव होने लगे।

वे दोनों दैत्य जन्म लेते ही पर्वताकार और परम पराक्रमी हो गए। प्रजापति कश्यप ने बड़े पुत्र का नाम ‘हिरण्यकश्यप‘ और छोटे का नाम ‘हिरण्याक्ष‘ रखा।

दोनों भाइयों में बड़ी प्रीति थी। दोनों एक दूसरे को अपने प्राणो से भी अधिक प्रेम करते थे। दोनों ही महाबलशाली, अमित पराक्रमी और आत्मबल संपन्न थे।

दोनों भाइयों ने युद्ध में देवताओं को पराजित करके स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। एक बार हिरण्याक्ष ने सोचा – ‘मृत्युलोक में रहने वाले पुरुष पृथ्वी पर रहकर यज्ञ पूजन आदि करेंगे जिससे देवताओं का बल और तेज बढ़ जायेगा। ‘

यह सोचकर उसने पृथ्वी को रसातल में ले जाकर छिपा दिया। यह देखकर सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी बहुत दुखी हुए और भगवान श्रीहरि का ध्यान किया।

अंतर्यामी भगवान श्रीविष्णु की स्मृति होते ही ब्रह्मा जी के नासिका से अंगूठे के बराबर एक श्वेत वराह शिशु निकला।

विधाता उसकी ओर आश्चर्य से देख ही रहे थे कि वह तत्काल विशाल हाथी के बराबर हो गया और फिर देखते देखते पर्वताकार हो गया। उन यज्ञमूर्ति वराह भगवान का गर्जन चारों तरफ गूंजने लगा।

वे घुरघुराते हुए और गरजते हुए मदमस्त हाथी के समान लीला करने लगे। उस समय मुनिगण प्रभु की प्रसन्नता के लिए उनकी स्तुति कर रहे थे।

भगवान स्वयं यज्ञपुरुष हैं तथापि सूकर रूप धारण करने के कारण अपनी नाक से सूंघ कर पृथ्वी का पता लगा रहे थे। उनकी दाढ़े बड़ी कठोर थीं और त्वचा पर कड़े कड़े बाल थे।

इस प्रकार वे बड़े क्रूर जान पड़ते थे पर अपनी स्तुति करने वाले मुनियों की ओर बड़ी सौम्य दृष्टि से निहारते हुए उन्होंने जल में प्रवेश किया।

भगवान वराह बड़े वेग से जल को चीरते हुए रसातल में जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने पृथ्वी को देखा और अपने दाढ़ों से पृथ्वी को उठाकर रसातल से बाहर निकले।

जल से बाहर निकलकर वे पृथ्वी को निर्दिष्ट स्थान पर स्थापित कर ही रहे थे कि हिरण्याक्ष वहाँ पहुँच गया। उसने वराह भगवान को युद्ध की चुनौती दी।

इसके बाद हिरण्याक्ष और वराह भगवान के बीच भयंकर संग्राम हुआ। इस युद्ध में वराह भगवान ने खेल खेल में ही हिरण्याक्ष का वध कर दिया।

इसके साथ ही देवतागण वराह भगवान की स्तुति करने लगे। फिर प्रभु ने वैष्णवों के हित के लिए कोकामुख तीर्थ में वराहरूप का त्याग किया।

पृथ्वी के उसी पुनः प्रतिष्ठा काल से श्वेतवाराह कल्प की सृष्टि प्रारम्भ हुई।

नृसिंह अवतार / Narsingh Avatar

अपने प्रिय भाई हिरण्याक्ष के वध से संतप्त होकर हिरण्यकश्यप दैत्यों और दानवों को अत्याचार करने की आज्ञा देकर स्वयं महेन्द्राचल पर्वत पर चला गया।

उसके ह्रदय में वैर की आग धधक रही थी अतः वह भगवान विष्णु से बदला लेने के लिए ब्रह्मा जी की घोर तपस्या करने लगा।

इधर हिरण्यकश्यप को तपस्या में रत देखकर देवराज इन्द्र ने दैत्यों पर चढ़ाई कर दी। दैत्यगण राजाविहीन होने के कारण युद्ध में पराजित हुए और भाग कर पाताललोक में शरण ली।

इन्द्र ने राजमहल में प्रवेश करके हिरण्यकश्यप की पत्नी कयाधू को बंदी बना लिया। उस समय वह गर्भवती थी, इसलिए इन्द्र उसे साथ लेकर अमरावती की ओर जाने लगे।

रास्ते में उनकी देवर्षि नारद से भेंट हो गयी। नारद जी ने कहा – ” देवराज, इसे कहाँ ले जा रहे हो ? ”

इन्द्र ने कहा – ” देवर्षे ! इसके गर्भ में हिरण्यकश्यप का अंश है, उसे मार कर इसे छोड़ दूंगा। “

यह सुनकर नारद जी ने कहा – ” देवराज ! इसके गर्भ में बहुत बड़ा भगवद्भक्त है, जिसे मारना तुम्हारी शक्ति के बाहर है, अतः इसे छोड़ दो। “

नारद जी के कथन का मान रखते हुए इन्द्र ने कयाधू को छोड़ दिया और अमरावती चले गए।

नारद जी कयाधू को अपने आश्रम पर ले आये और उससे बोले – ” बेटी ! तुम यहाँ तब तक सुखपूर्वक निवास करो जब तक तुम्हारा पति तपस्या से लौट कर नहीं आ जाता। “

समय होने पर कयाधु ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम प्रह्लाद रखा गया।

इधर हिरण्यकश्यप की कठोर तपस्या से ब्रह्मा जी प्रसन्न हो गए और उसे मनचाहा वर मांगने को कहा।

यह सुनकर हिरण्यकश्यप बोला – ” प्रभो ! यदि आप मुझे अभीष्ट वर देना चाहते हैं तो ऐसा वर दीजिये कि आपके बनाये हुए किसी भी प्राणी से – चाहे वह मनुष्य हो या पशु , देवता हो या दैत्य अथवा नाग – किसी से भी मेरी मृत्यु न हो।

भीतर – बाहर, दिन में या रात्रि में, अस्त्र – शस्त्र से, पृथ्वी या आकाश में कहीं भी मेरी मृत्यु न हो। युद्ध में कोई मेरा सामना न कर सके। मैं समस्त प्राणियों का एकक्षत्र सम्राट होऊं। “

ब्रह्मा जी हिरण्यकश्यप को मुँह माँगा वरदान देकर अंतर्ध्यान हो गए। हिरण्यकश्यप वापस अपनी राजधानी चला आया। कयाधु भी नारद जी के आश्रम से राजमहल में आ गयी।

इसके बाद हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद के शिक्षा की व्यवस्था की। धीरे धीरे प्रह्लाद की आयु बढ़ने के साथ ही उसकी भगवद्भक्ति भी बढ़ने लगी।

एक दिन हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को गोद में उठाकर पुचकारते हुए कहा – ” बेटा ! अपनी पढ़ी हुई अच्छी अच्छी बात सुनाओ। “

तब प्रह्लाद ने श्री भगवान और भगवद्भक्ति की प्रशंसा की। यह सुनते ही हिरण्यकश्यप क्रोध से आगबबूला हो गया और उसने प्रह्लाद को अपनी गोद से निचे पटक दिया और असुरों को उसे मार डालने की आज्ञा दे दी।

फिर तो असुरों ने प्रह्लाद का काम तमाम करने के लिए अनेकों उपाय किये पर हर बार ईश्वर की कृपा से प्रह्लाद बच गया। किसी भी उपाय से असुर प्रह्लाद का बाल भी बांका नहीं कर पाए।

एक दिन गुरु पुत्रों के शिकायत करने पर हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को राज दरबार में बुलाया और उसे तरह तरह से डराने लगा।

फिर उसने कहा – ” रे दुष्ट ! जिसके बल पर तू ऐसी बहकी बहकी बातें करता है, तेरा वह ईश्वर कहाँ है ? वह यदि सर्वत्र है तो मुझे इस खम्बे में क्यों नहीं दिखाई देता ? “

तब प्रह्लाद ने कहा – ” मुझे तो वे प्रभु खम्बे में भी दिखाई दे रहे हैं। “

यह सुनकर हिरण्यकश्यप क्रोध के मारे स्वयं को संभाल नहीं सका और हाथ में तलवार लेकर सिंघासन से कूद पड़ा और बड़े जोर से उस खम्बे में एक घूँसा मारा।

उसी समय उस खम्बे से बड़ा भयंकर शब्द हुआ और उस खम्बे को तोड़कर एक विचित्र प्राणी बाहर निकलने लगा जिसका आधा शरीर सिंह का और आधा शरीर मनुष्य का था।

यह भगवान श्रीहरि का नृसिंह अवतार था। उनका रूप बड़ा भयंकर था। उनकी तपाये हुए सोने के समान पीली पीली आँखें थीं, उनकी दाढ़ें बड़ी विकराल थीं और वे भयंकर शब्दों से गर्जन कर रहे थे। उनके निकट जाने का साहस किसी में नहीं हो रहा था।

यह देखकर हिरण्यकश्यप सिंघनाद करता हुआ हाथ में गदा लेकर नृसिंह भगवान पर टूट पड़ा।

तब भगवान भी हिरण्यकश्यप के साथ कुछ देर तक युद्ध लीला करते रहे और अंत में उसे झपटकर दबोच लिया और उसे सभा के दरवाजे पर ले जाकर अपनी जांघों पर गिरा लिया और खेल ही खेल में अपनी नखों से उसके कलेजे को फाड़कर उसे पृथ्वी पर पटक दिया।

फिर वहाँ उपस्थित अन्य असुरों और दैत्यों को खदेड़ खदेड़ कर मार डाला। उनका क्रोध बढ़ता ही जा रहा था। वे हिरण्यकश्यप की ऊँची सिंघासन पर विराजमान हो गए।

उनकी क्रोधपूर्ण मुखाकृति को देखकर किसी को भी उनके निकट जाकर उनको प्रसन्न करने का साहस नहीं हो रहा था।

हिरण्यकश्यप की मृत्यु का समाचार सुनकर उस सभा में ब्रह्मा, इन्द्र, शंकर, सभी देवगण, ऋषि-मुनि, सिद्ध, नाग, गन्धर्व आदि पहुँचे और थोड़ी दूरी पर स्थित होकर सभी ने अंजलि बाँध कर भगवान की अलग-अलग से स्तुति की पर भगवान नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ।

तब देवताओं ने माता लक्ष्मी को उनके निकट भेजा पर भगवान के उग्र रूप को देखकर वे भी भयभीत हो गयीं।

तब ब्रह्मा जी ने प्रह्लाद से कहा – ” बेटा ! तुम्हारे पिता पर ही तो भगवान क्रुद्ध हुए थे, अब तुम्ही जाकर उनको शांत करो। “

तब प्रह्लाद भगवान के समीप जाकर हाथ जोड़कर साष्टांग भूमि पर लोट गए और उनकी स्तुति करने लगे।

एक नन्हे बालक को अपने चरणों में पड़ा देखकर भगवान दयार्द्र हो गए और प्रह्लाद को उठाकर गोद में बिठा लिया और प्रेमपूर्वक बोले –

” वत्स प्रह्लाद ! तुम्हारे जैसे एकांतप्रेमी भक्त को यद्यपि किसी वस्तु की अभिलाषा नहीं रहती पर फिर भी तुम केवल एक मन्वन्तर तक मेरी प्रसन्नता के लिए इस लोक में दैत्याधिपति के समस्त भोग स्वीकार कर लो।

भोग के द्वारा पुण्यकर्मो के फल और निष्काम पुण्यकर्मों के द्वारा पाप का नाश करते हुए समय पर शरीर का त्याग करके समस्त बंधनों से मुक्त होकर तुम मेरे पास आ जाओगे। देवलोक में भी लोग तुम्हारी विशुद्ध कीर्ति का गान करेंगे। “

यह कहकर भगवान नृसिंह वहीँ अंतर्ध्यान हो गए।

वामन अवतार / Vamana Avatar

एक समय देवताओं और दैत्यों में युद्ध हुआ। देवता पराजित हुए और दैत्यों ने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया।

तब देवताओं की रक्षा और दैत्यों के विनाश के लिए महर्षि कश्यप और देवमाता अदिति ने भगवान विष्णु की कठोर तपस्या की।

उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने कश्यप और अदिति के पुत्र रूप में जन्म लेने का वचन दिया। साथ ही देवताओं पर आयी हुई विपत्ति का नाश करने का भी वरदान दिया।

समय आने पर अदिति के गर्भ से भगवान विष्णु ने वामन अवतार ग्रहण किया। भगवान को पुत्र रूप में प्राप्त करके माता अदिति को अपार हर्ष हुआ तब कश्यप जी ने उनका जातकर्म संस्कार किया।

इसके बाद ब्रह्मर्षियों ने भगवान वामन का उपनयन संस्कार किया। उस समय वामन बटुक को महर्षि पुलह ने यज्ञोपवीत, पुलस्त्य ने दो श्वेत वस्त्र, अगस्त्य ने मृगचर्म, भरद्वाज ने मेखला,

मरीचि ने पलाशदंड, वशिष्ठ ने अक्षसूत्र, अंगिरा ने कुश का बना हुआ वस्त्र, सूर्य ने क्षत्र, भृगु ने खड़ाऊं और देवगुरु बृहस्पति ने कमण्डलु प्रदान किया।

उपनयन के बाद भगवान वामन ने अङ्गोंसहित वेदों और शास्त्रों का अध्ययन करके एक ही मास में उनमें निपुणता प्राप्त कर ली।

प्रह्लाद का प्रपौत्र दैत्यराज बलि प्रजापालक, न्यायप्रिय और दानवीर था। वो भगवत्भक्त भी था पर उसे अपने दानवीर होने का घमंड हो गया था।

एक बार बलि ने तीनों लोकों का राज्य पाने के लिए अश्वमेध यज्ञ किया। वामन भगवान छोटे बटुक ब्राह्मण के रूप में राजा बलि के यज्ञ में पहुँचे।

भगवान वामन बलि के यज्ञ में पहुँच कर दान में तीन पग भूमि मांगी और दो पगों में ही बलि का सारा राज्य ले लिया।

जब तीसरा पग रखने के लिए कोई स्थान नहीं बचा तब बलि ने हार मान ली और भगवान ने उसे उत्तम गति प्रदान की और भाई बंधुओं के साथ सुतल लोक में भेज दिया।

इसके बाद इन्द्र को स्वर्ग का अधिपति और देवताओं को यज्ञ याग भोजी बनाकर सबके देखते हुए अंतर्ध्यान हो गए।

परशुराम अवतार / Parshuram Avatar

पृथ्वी पर एक समय सत्ता के मद में चूर होकर क्षत्रिय राजा अपने धर्म से विहीन हो गए और प्रजा पर अत्याचार करने लगे तब भगवान विष्णु ने क्षत्रियों को धर्म के मार्ग पर लाने के लिए परशुराम अवतार लिया।

त्रेतायुग एवं द्वापरयुग के संधिकाल में वैशाख शुक्ल तृतीया ( अक्षय तृतीया ) के शुभ दिन महर्षि जमदग्नि और भगवती रेणुका के माध्यम से भगवान विष्णु का भार्गवराम ( परशुराम ) के रूप में पृथ्वी पर अवतार हुआ।

भगवान शिव से प्राप्त अत्यंत तीक्ष्ण धारवाला अमोघ परशु ( फरसा ) धारण करने के कारण उनका नाम परशुराम पड़ा।

महर्षि जमदग्नि एवं भगवती रेणुका को पांच पुत्र हुए – (1) रूमण्वान, (2) सुषेण, (3) वसु, (4) विश्वावसु तथा (5) परशुराम।

परशुराम सबसे छोटे थे पर सबसे वीर तथा वेदज्ञ थे। पांच वर्ष की अवस्था में उनका विधिपूर्वक यज्ञोपवीत संस्कार हुआ।

उन्होंने महर्षि कश्यप से शस्त्र तथा शास्त्रों की शिक्षा ग्रहण की। कुशाग्र बुद्धि संपन्न तथा उत्साही परशुराम अल्प समय में ही चारों वेद तथा धनुर्विद्या में निपुण हो गए।

इसके बाद उन्होंने गंधमादन पर्वत पर जाकर भगवान शंकर की कठोर तपस्या की। भगवान शंकर को प्रसन्न करके परशुराम जी ने उनसे उच्च कोटि की धनुर्विद्या और विभिन्न प्रकार के अस्त्र शस्त्र प्राप्त किये।

एक बार उनके पिता महर्षि जमदग्नि ने माता रेणुका पर क्रोधित होकर अपने पुत्रों से उनका वध करने को कहा। किन्तु मातृ स्नेहवश किसी में भी यह साहस नहीं हुआ।

परशुराम जी वन से लौटे ही थे कि क्रुद्ध पिता ने उन्हें आज्ञा दी – ” बेटा ! तुम अपनी माता और इन चारों भाइयों का सिर काट दो। “

अपने पिता के तपोबल से परिचित परशुराम जी ने तुरंत परशु उठाया और माता सहित अपने चारों भाइयों का मस्तक काटकर अलग कर दिया।

क्रोध शान्त होनेपर महर्षि जमदग्नि ने परशुराम जी से कहा – ” धर्मज्ञ राम ! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। तुम इक्षित वर माँग लो। “

परशुराम जी ने हाथ जोड़कर पिता से निवेदन किया – ” पिताजी ! मेरी माता और सभी भाई जीवित हो जाएँ और उन्हें मेरे द्वारा मारे जाने की स्मृति न रहे। युद्ध में कोई मेरा सामना न कर सके और मैं दीर्घायु प्राप्त करूँ। “

मुस्कुराकर जमदग्नि ने कहा – ” ऐसा ही होगा। ” और संजीवनी विद्या के द्वारा उन सबको फिर से जीवित कर दिया।

महाभारत में वर्णन है कि भगवान परशुराम ने इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से सूनी करके उनके रक्त से समन्त पंचक क्षेत्र में पांच रुधिरकुंड भर दिए और रक्तांजलि के द्वारा उन कुंडों में पितरों का तर्पण किया।

तर्पण के समय उन्होंने अपने पितरों का साक्षात् दर्शन किया। पितृगण परशुराम जी के पास आकर बोले – ” हे महाभाग, तुम्हारी पितृभक्ति और पराक्रम से हम बहुत प्रसन्न हैं, तुम्हें जिस वर की अभिलाषा हो, मांग लो। “

इसपर परशुराम जी ने कहा – ” पितृगणों ! मैंने क्रोधवश क्षत्रिय वंश का विध्वंश किया है, इस पाप से मैं मुक्त हो जाऊं और मेरे बनाये ये सरोवर पृथ्वी में प्रसिद्ध हो जाएँ। “

” ऐसा ही होगा ” – यह कहकर पितरों ने उन्हें वरदान दिया और इस घोर कर्म से उन्हें रोका।

महाबली परशुराम ने क्षत्रियों की जिस भूमि को हस्तगत किया था, उस भूमि को अश्वमेध यज्ञ के आचार्य महर्षि कश्यप को दान में दे दिया और स्वयं तपस्या में प्रवृत्त हुए।

राम अवतार / Ram Avatar

रघुकुल में दशरथ नाम के प्रतापी राजा हुए। महाराज दशरथ ने तीन विवाह किये थे पर अधिक अवस्था हो जाने पर भी उनके कोई पुत्र न हुआ।

निराश होकर वे अपने कुलगुरु वशिष्ठ मुनि की शरण में पहुँचे। महर्षि वशिष्ठ के परामर्श पर दशरथ जी ने श्रृंगी ऋषि को बुलाकर पुत्रयेष्ठि यज्ञ किया।

यज्ञ के पूर्ण होने पर स्वयं अग्निदेव ने प्रकट होकर दशरथ जी को चरु प्रदान किया। उस दिव्य चरु को ग्रहण करके तीनों रानियाँ गर्भवती हुईं।

देवतागण लंकापति राक्षसराज रावण से त्रस्त हो गए थे। वह ऋषियों, ब्राह्मणों, देवताओं तथा धर्म का शत्रु था। उसने यज्ञ, पूजन आदि बलपूर्वक रोक दिए।

राक्षस उन्मत्त होकर ऋषि मुनियों का वध तथा भक्षण करने लगे। रावण ने समस्त देवताओं को पराजित कर दिया था तथा लोकपालों को अपनी आज्ञा मानने को विवश कर दिया था।

अधर्म के इस प्रचंड भार को पृथ्वी सह न सकी और देवताओं के साथ भगवान विष्णु के शरण में पहुँची।

तब उनकी प्रार्थना पर भगवान विष्णु ने दशरथ और कौशल्या के पुत्र के रूप में धरती पर रामावतार ग्रहण किया। सुमित्रा के दो पुत्र हुए, लक्ष्मण और शत्रुघ्न तथा केकयी को एक पुत्र हुआ, भरत।

चारों कुमार बड़े हुए और कुलगुरु वशिष्ठ से शस्त्र एवं शास्त्र की शिक्षा ग्रहण की। एक दिन राक्षसों के उपद्रव से पीड़ित होकर ऋषि विश्वामित्र दशरथ के पास आये।

उन्होंने महाराज दशरथ के समक्ष राम लक्ष्मण को अपने साथ ले जाने की इक्षा प्रकट की। यह सुनकर दशरथ जी ने उन्हें अपनी चतुरंगिणी सेना को साथ ले जाने को कहा।

पर विश्वामित्र मुनि को उनका यह परामर्श उचित नहीं लगा क्योंकि इससे उनकी तपस्या में बाधा उत्पन्न होती।

कुलगुरु वशिष्ठ के समझाने पर दशरथ जी मान गए और राम लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ वन में जाने की आज्ञा दे दी।

राम लक्ष्मण ने वन में जाकर समस्त तपोवन को राक्षसहीन कर दिया। ऋषियों की पूजा तपस्या पहले की ही भाँति विघ्नरहित होकर चलने लगी।

इसी बीच ऋषि विश्वामित्र को विदेहराज जनक का आमंत्रण मिला। उनकी पुत्री सीता का स्वयंवर हो रहा था। विश्वामित्र दोनों अवध कुमार को साथ लेकर मिथिला पहुँचे।

राजा जनक ने प्रतिज्ञा की थी कि जो भी भगवान शिव के अमोघ धनुष को तोड़ेगा उसी के साथ सीता का विवाह होगा। मिथिला नरेश की यह प्रतिज्ञा प्रभु श्रीराम ने पूर्ण की।

अपने आराध्यदेव के धनुषभंग का समाचार सुनकर परशुराम जी क्रोधित होकर वहाँ पहुँचे पर राम के शील, शक्ति और तेज से गर्वरहित होकर लौट गए।

इसके बाद अयोध्या नरेश दशरथ को आमंत्रण मिला और उनके चारों कुमार का जनकपुर में विवाह हुआ।

दशरथ और वशिष्ठ के साथ पूरी प्रजा भगवान श्रीराम का राज्याभिषेक चाहती थी पर राम राज्य करते तो धरती का भार कौन दूर करता ?

देवताओं की प्रेरणा से माता केकयी को मोह हो गया और उन्होंने दशरथ जी को वचनबद्ध करके भरत के लिए राज्य और श्रीराम के लिए चौदह वर्ष का वनवास माँग लिया।

पिता के वचन को पूरा करने के लिए श्रीराम, लक्ष्मण और सीता जी के साथ तपस्वी के वेश में वन को प्रस्थान कर गए। महाराज दशरथ ने अपने प्रिय पुत्र के वियोग में प्राण त्याग दिए।

जब यह प्रकरण हुआ, तब भरत अपने ननिहाल में थे। यह समाचार सुनते ही वे तुरंत अयोध्या वापस लौट आये और पिता का अंतिम संस्कार किया।

इसके बाद समस्त समाज को साथ लेकर श्रीराम को लौटाने चित्रकूट पहुँचे।

पर श्रीराम की आज्ञा से उनकी चरण पादुका लेकर अयोध्या वापस लौटे और उन्हीं चरण पादुकाओं को भगवान श्रीराम के प्रतीक रूप में सिंघासन पर विराजित कर दिया।

भरत ने स्वयं तपस्वी वेश में चौदह वर्षों तक नगर से बाहर रहकर श्रीराम के प्रतिनिधि बनकर अयोध्या का शासन करने का संकल्प लिया।

भगवान श्रीराम ने चित्रकूट में महर्षि अत्रि और सती अनसूया का दर्शन करके वहाँ से प्रस्थान किया और मार्ग में विराध नामक एक असुर का वध किया।

चित्रकूट से आगे बढ़ने पर श्रीराम ने भरद्वाज, शरभंग, सुतीक्ष्ण, अगस्त्य आदि ऋषियों का दर्शन करते हुए दंडकारण्य पहुँचे और वहाँ पर्णकुटी बनाकर वनवास का समय व्यतीत करने लगे।

एक दिन वन में विचरते हुए वहाँ रावण की बहन सूर्पनखा पहुँची और श्रीराम पर मोहित होकर उनसे प्रणय निवेदन करने लगी। तब मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की आज्ञा से लक्ष्मण ने सूर्पनखा के नाक और कान काट दिए।

नाक-कान कटने पर वह अपने साथ खर और दूषण को लेकर आयी। वे असुर चौदह सहस्त्र सेना के साथ आये पर भगवान श्रीराम के तीक्ष्ण बाणों के भोग बन गए।

इसके बाद सूर्पनखा रावण के पास पहुँची और उसको अपनी व्यथा सुनाई। रावण ने मारीच को साथ लेकर स्वर्ण मृग की माया से छलपूर्वक सीता जी का हरण कर लिया।

जब श्रीराम वापस लौटे तब कुटिया को खाली देखकर सीता की खोज में निकले। मार्ग में उन्हें आहत अवस्था में गिद्धराज जटायु मिले जो रावण से सीता को बचाने के क्रम में आहत हो गए थे।

जटायु ने श्रीराम के गोद में ही प्राण त्याग दिए। श्रीराम ने अपने कर कमलों से जटायु का अंतिम संस्कार किया। इसके बाद कबंध असुर का वध और शबरी के बेरों का आस्वादन करते हुए वे पम्पासुर पहुँचे।

वहाँ प्रभु श्रीराम, हनुमान जी से मिले। हनुमान जी ने भाई बाली के द्वारा निर्वासित सुग्रीव से श्रीराम की मित्रता कराई। इसके बाद श्रीराम ने बाली वध करके सुग्रीव का राज्याभिषेक किया।

सुग्रीव की आज्ञा से भालू और वानर दल सभी दिशाओं में सीता जी की खोज में निकले। तब महावीर हनुमान जी ने लंका पार करके सीता जी का पता लगाया।

तत्पश्चात सुग्रीव के साथ विशाल वानर सेना लेकर प्रभु श्रीराम सागर तट पर पहुँचे और सेतु बंध करके लंका पर चढ़ाई कर दी।

इस युद्ध में रावण अपने भाई कुंभकरण, पुत्र इन्द्रजीत और समस्त राक्षसी सेना के साथ मारा गया।

लंका पर विजय प्राप्त करके वहाँ का शासन विभीषण को सौंप कर भगवान श्रीराम, लक्ष्मण और सीता जी के साथ पुष्पक विमान से अयोध्या वापस लौट गए और अयोध्या के सिंघासन पर विराजमान हुए।

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम का ‘रामराज्य‘ आज भी सुशासन, सुव्यवस्था और शांति के लिए एक उदाहरण है।

कृष्ण अवतार / Krishna Avatar

अपनी बहन देवकी के विवाह के बाद कंस प्रसन्नतापूर्वक उसे ससुराल पहुँचाने जा रहा था। मार्ग में आकाशवाणी हुई – ” तू जिसे इतने उत्साह से पहुँचाने जा रहा है, उसी का आठवाँ पुत्र तुझे मारेगा। “

आकाशवाणी सुनकर कंस चौंका। दिग्विजय कंस मृत्यु के भय से कायर के समान व्यवहार करने लगा। वह अपनी बहन का ही वध करने को उद्यत हो गया।

पर वसुदेव ने भविष्य में जन्म लेने वाले सभी शिशुओं को उसे सौंपने का वचन दिया। इस पर भी कंस ने देवकी और उनके पति वसुदेव को कारागार में बंद कर दिया।

विरोध करने पर अपने पिता उग्रसेन को बंदी बनाकर स्वयं मथुरा के सिंघासन पर विराजमान हो गया।

कारागार में देवकी के गर्भ से एक-एक करके छह शिशुओं ने जन्म लिया। वचनबद्ध देवकी और वसुदेव उन सबको कंस को सौंपते गए। कंस ने उन शिशुओं को पत्थर पर पटक कर मार दिया।

सातवें गर्भ में भगवान शेष पधारे। योगमाया ने उन्हें आकर्षित करके गोकुल में रोहिणी जी के गर्भ में पहुँचा दिया। अष्टम गर्भ में स्वयं भगवान नारायण धरती का भार हरने को प्रकट हुए।

कंस के कारागार में भाद्र कृष्ण अष्टमी तिथि को अर्धरात्रि के समय चंद्रोदय के साथ ही भगवान का प्राकट्य हुआ।

भगवत्कृपा से सभी बाधाओं को पार करके वसुदेव जी शिशु को गोकुल जाकर नन्द जी के घर रख आये।

कंस को मिली यशोदा की योगमाया रुपी कन्या और जब कंस उन्हें शिला पर पटकने जा रहा था तब वह कन्या अष्टभुजा रूप धारण करके बोली – ” तुझे मारने वाला तो जन्म ले चूका है। “

अपने गुप्तचरों से पता लगाकर कंस उस शिशु को मारने के प्रयत्न में लगा रहा। उसी क्रम में पूतना, शकटासुर, वात्याचक्र आदि श्रीकृष्ण के हाथों सद्गति पा गए।

भगवान की बाललीला चलती रही और कुछ बड़े होने पर माता यशोदा ने एक दिन जब परेशान होकर उन्हें ऊखल से बांध दिया तब श्रीकृष्ण ने शाप से वृक्ष योनि को प्राप्त हुए यमलार्जुन का उद्धार किया।

किन्तु उन विशाल वृक्षों के गिरने से गोप शंकित हो गए और गोकुल छोड़कर वृन्दावन जा बसे।

जब कृष्ण थोड़े और बड़े हुए तब गो पालक बनकर कंस के भेजे हुए अनेक राक्षसों जैसे बकासुर, वत्सासुर, प्रलम्ब, धेनुक, अघासुर, व्योमासुर आदि का वध किया।

उन्होंने कालिय नाग के त्रास से यमुना जी की रक्षा की और यमुना के जल को निर्मल किया।

इन्द्र के कोप से जब महावृष्टि आरम्भ हुई तब उन्होंने गोवर्धन पर्वत को सात दिनों तक अपनी एक अंगुली पर उठाकर व्रजवासियों की रक्षा की और इन्द्र के दर्प का नाश किया।

बड़े बड़े योद्धाओं के मारे जाने से कंस निराश होकर एक षड्यंत्र के अंतर्गत अक्रूर जी को भेजकर कृष्ण और बलराम को मल्ल प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए मथुरा बुला लिया।

महोत्सव आरम्भ होने पर अखाड़े में सुकुमार कृष्ण और बलराम ने चाणूर, मुष्टिक, शल, तोशल जैसे महावीरों का वध किया।

इसके बाद कंस को मारकर भगवान कृष्ण ने महाराज उग्रसेन और अपने माता-पिता, देवकी और वसुदेव को बंदीगृह से मुक्त किया। उग्रसेन फिर से मथुरा के सिंघासन पर विराजमान हुए।

बड़े भाई बलराम के साथ अवन्ति जाकर श्रीकृष्ण ने संदीपनी मुनि के सान्निध्य में शिक्षा ग्रहण की और गुरुदक्षिणा में गुरु के मृत पुत्र को पुनः प्रदान कर आये।

मथुरा लौटते ही कंस के श्वसुर जरासंध से युद्ध हुआ। उसने सत्रह बार मथुरा पर आक्रमण किया पर हर बार पराजित होकर लौट गया।

मथुरा को सब ओर से सुरक्षित न मानकर भगवान कृष्ण ने द्वारिका को अपनी राजधानी बनाया।

कालयवन ने जब द्वारिका पर आक्रमण किया तब भगवान श्रीकृष्ण उसके सामने से पैदल ही भाग चले।

पीछा करता हुआ कालयवन गुफा में जाकर चिरनिद्रा का वरदान पाए हुए राजा मुचकुन्द की नेत्राग्नि से भस्म हो गया। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण का एक नाम ‘रणछोड़‘ पड़ा।

श्रीकृष्ण के विवाह तो लोक प्रसिद्ध हैं। रुक्मिणी जी का उन्होंने हरण किया था। स्यमन्तक मणि की खोज में जांबवंत से युद्ध करके उपहार स्वरुप जांबवंती को ले आये।

मणि के कारण कलंक लगाने के दोष से लज्जित सत्राजित ने अपनी पुत्री सत्यभामा स्वयं उन्हें प्रदान की। कालिंदी जी ने तो स्वयं ही श्रीकृष्ण को तप करके प्राप्त किया था।

लक्ष्मणा जी के स्वयंवर में मत्स्यभेदन करने में कोई और समर्थ ही न हो सका और महाराज नग्नजित के सातों साँड़ एक साथ नाथकर उनकी पुत्री सत्या से दूसरा कौन विवाह कर पाता।

मित्रविन्दा जी को उन्होंने स्वयं हरण किया और भद्रा जी को उनके पिता ने सादर प्रदान किया। यह तो आठ पटरानियों की बात हुई।

जब श्रीकृष्ण ने भौमासुर का वध किया तब उसके द्वारा बंदी बनायी गयीं सोलह हजार राजकन्याओं के उद्धार के लिए उन्होंने उनके साथ विवाह किया।

पौण्ड्रक, दन्तवक्त्र, शाल्व, शिशुपाल आदि स्वयं अपनी ही गलतियों से श्रीकृष्ण के हाथों मारे गए। पौण्ड्रक स्वयं को वासुदेव कृष्ण ही मानने लगा था।

दन्तवक्त्र ने आक्रमण किया और शाल्व तो मयनिर्मित विमान से द्वारिका ही नष्ट करने आया था। शिशुपाल भरी सभा में श्रीकृष्ण को गालियाँ देने लगा और सुदर्शन चक्र की भेंट चढ़ गया।

पाण्डवों के रक्षक तो भगवान श्रीकृष्ण ही थे। भीम की सहायता न करते तो जरासंध मारा नहीं जाता।

पाण्डवों के जुए में हार जाने पर जब भरी सभा में दुःशासन द्वारा द्रौपदी नग्न की जाने लगी तब श्रीकृष्ण ने वस्त्रावतार लेकर उनके मान की रक्षा की।

दुर्योधन ने दुर्वासा मुनि को वन में भेजा ही था पाण्डवों के विनाश के लिए, पर शाक का एक पत्र खाकर त्रिलोकी को संतुष्ट करने वाले वासुदेव ने उनकी रक्षा की।

कुरुक्षेत्र का युद्ध आरम्भ होने पर श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी बने और संग्राम भूमि में ही अर्जुन को गीता का दिव्य ज्ञान दिया। युद्ध का अंत होने पर युधिष्ठिर को सिंघासन प्राप्त हुआ।

भगवान श्रीकृष्ण ने पाण्डवों के एक मात्र वंशधर परीक्षित की, माता के गर्भ में, अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से रक्षा की। व्याध ने पादतल में बाण मारा तो उसे सशरीर स्वर्ग भेजने का पुरस्कार दिया।

श्रीकृष्ण पूर्णपुरुष लीलावतार कहे गए हैं। भगवान व्यास ने श्रीमद्भागवत में उनकी दिव्य लीलाओं का वर्णन किया है।

भगवत सत्ता के छह गुण – ऐश्वर्य, धर्म, यश, शोभा, ज्ञान और वैराग्य – ये सब उनमें विद्यमान हैं।

बुद्ध अवतार / Buddha Avatar

सामान्य तौर पर बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध को ही भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है पर पुराणों में वर्णित भगवान बुद्धदेव का जन्म गया के समीप कीकट देश में हुआ था।

उनके पुण्यात्मा पिता का नाम ‘अजन‘ बताया गया है।

एक समय संसार में दैत्यों की शक्ति बहुत बढ़ गयी थी। दैत्यों के समक्ष देवताओं का तेज क्षीण पड़ गया। तब दैत्यों ने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया और देवताओं के वैभव का उपभोग करने लगे।

पर उन्हें हमेशा इस बात की चिंता बनी रहती थी कि पता नहीं, कब देवता फिर से शक्तिशाली हो जाएँ और स्वर्ग पर अधिकार कर लें।

स्थिर राज्य के कारण का रहस्य जानने के लिए दैत्यों ने देवराज इन्द्र का पता लगाया और उनसे पुछा – ” हमारा साम्राज्य स्थिर रहे, इसका क्या उपाय है ? “

तब देवराज इन्द्र ने शुद्ध भाव से उत्तर दिया – ” स्थिर शासन के लिए यज्ञ एवं धर्म आवश्यक है। “

दैत्यों ने धर्म का आश्रय लिया और यज्ञों का अनुष्ठान आरम्भ किया। जिसके फलस्वरूप उनकी शक्ति दिन प्रतिदिन बढ़ने लगी। संसार में आसुरी शक्ति का प्रसार होने लगा।

हारकर देवता गण भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे और उनसे इस कष्ट से रक्षा करने की प्रार्थना की। तब भगवान विष्णु ने उन्हें आश्वासन दिया और बुद्ध का अवतार लिया।

भगवान बुद्ध के हाथ में हमेशा एक मार्जनी (झाड़ू) होती थी और वे मार्ग को बुहारते हुए उस पर चरण रखते थे।

इस प्रकार भगवान बुद्ध दैत्यों के पास पहुँचे और उन्हें उपदेश दिया – ” यज्ञ करना पाप है। यज्ञ से जीव हिंसा होती है। यज्ञ की प्रज्वलित अग्नि में ही कितने सारे जीव भस्म हो जाते हैं।

देखो, मैं भी जीव हिंसा से बचने के लिए कितना प्रयत्नशील रहता हूँ। पहले झाड़ू लगाता हूँ फिर पैर रखता हूँ। “

भगवान बुद्धदेव के उपदेश से दैत्यगण अत्यंत प्रभावित हुए। उन्होंने यज्ञ एवं वैदिक आचरण का परित्याग कर दिया। फलस्वरूप कुछ ही समय में उनकी शक्ति क्षीण हो गयी।

देवतागण इसी समय की प्रतीक्षा में थे, उन्होंने दैत्यों पर आक्रमण करके उन्हें पराजित कर दिया। देवताओं का स्वर्ग पर फिर से अधिकार हो गया।

कल्कि अवतार / Kalki Avatar

ये भगवान विष्णु का दसवां अवतार है जो कलियुग के अंतिम चरण में होगा। अभी तो कलियुग का प्रथम चरण है, इसके पांच हजार से कुछ ही अधिक वर्ष बीते हैं।

इतने ही दिनों में मानव जाति का कितना नैतिक पतन हो चूका है, यह सबको पता है।

ज्यों ज्यों कलियुग बीतता जायेगा, पृथ्वी से निरन्तर धर्म का लोप होता जायेगा और मनुष्यों का नैतिक पतन भी बढ़ता जायेगा। सर्वत्र पाप, पीड़ा, दुःख और अनाचार फैल जायेगा।

उस समय सम्भल ग्राम में विष्णुयशा नामक एक अत्यंत पवित्र, सदाचारी एवं श्रेष्ठ ब्राह्मण होंगे।

उन्हीं भाग्यशाली ब्राह्मण विष्णुयशा के यहाँ परब्रह्म परमेश्वर भगवान कल्कि के रूप में अवतरित होंगे।

वे महान बुद्धि एवं पराक्रम से संपन्न, महात्मा, सदाचारी तथा प्रजा के हितैषी होंगे। वे परम पुण्यमय भगवान कल्कि पृथ्वी से सम्पूर्ण पापियों और दुराचारियों का नाश कर देंगे।

इसके बाद स्वाभाविक रूप से धर्म का उत्थान प्रारम्भ होगा और पृथ्वी पर पुनः सत्ययुग प्रतिष्ठित होगा।

भगवान विष्णु के अवतार प्राणी मात्र के कल्याण एवं सृष्टि की रक्षा के उद्देश्य से ही हुए हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है –

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥

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7 thoughts on “भगवान विष्णु के 10 अवतार और उनकी संक्षिप्त कथा”

  1. बुद्ध को विष्णु अवतार गलत बताया है।
    बुद्ध जैसे तो बहुत हुए हैं।

    मनचाही बात मत लिखो।
    बुद्ध ही सबसे पहला सनातन धर्म का विरोधी था,
    तब विक्रमादित्य ने दोबारा सनातन धर्म के इतिहास को इकट्ठा किया।

    बुद्ध जैसे तो अब भी बहुत मिलेंगे भारत में।

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